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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :9788181439857

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...

असभ्यता


[मैं जाति, गोत्र, सम्प्रदाय वगैरह में विश्वास नहीं करती। जो लोग इन्सान को विभिन्न सम्प्रदायों में बाँटते हैं, वे ही लोग तो साम्प्रदायिक होते हैं। लिंग-धर्म-गोत्र-वर्णजाति-सम्प्रदाय के भेदभाव से ऊपर उठ कर, इन्सान को इन्सान ही मानती हूँ।]

इधर कई दिनों से ये उग्रपन्थी मुसलमान लोग अजब-अजब तरीके की हरकतें कर रहे हैं। सभी लोग अचरज से मुँह बाये देखते रहते हैं। बम मार कर यह-वह उड़ा देना, आतंक सष्टि करना-यह सब तो लगा ही है; ये सब शायद कोई भी आतंकवादी दल करते हैं, या कर सकते हैं, भले उनका कोई भी धर्म हो! लेकिन कई-कई दिनों के अन्तर में लड़कियों औरतों को ले कर 'खिलन्दड़ेपन' का खेल खेल कर समूचे भारतवासियों को चौंका देने की हरकत उन्हीं लोगों ने की है। यह देख कर यही लगता है कि इस किस्म की हरकत करने का उन लोगों ने ठेका ले लिया है। मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि गैर-मुसलमान औरतों के साथ, ऐसा खिलन्दड़ापन नहीं होता; मैं यह भी नहीं कहती कि वे लोग अनन्त आज़ादी का सुख जी रही हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है। भारत की औरतों हर कहीं कमोबेश गुलामी की बेड़ियों में कैद हैं, लेकिन, गैर-मुसलमान औरतें के साथ जो बदतमीज़ी होती है, उन तमाम बदतमीज़ियों की एक सीमा होती है। लेकिन मुसलमान औरतों के साथ की गयी बदतमीज़ी सीमा पार कर जाती है। औरतें मर्दो की सिर्फ सेक्स-लालसा मिटाने का खिलौना भर हैं, मर्दो के सुख-भोग की सामग्री हैं, मर्दो की सिर्फ और सिर्फ़ दासी या ज़रखरीद बांदी हैं-यह सब इतने तीखेपन से और कोई नहीं समझाता, जितना ये मुसलमान मर्द समझाते हैं। श्वसुर बलात्कार करता है! खैर, बलात्कार तो पुरुष मात्र ही करता है, चाहे मन ही मन या अपनी देह के ज़रिये-उनके पुरुषांग में मुसलमानी या खतना नामक घटना घटी हो या न घटी हो। लेकिन इसलिए बलात्कारी को अपना पति मान लेना होगा? इस किस्म का फ़तवा, दुनिया के सरताज असभ्यों ने भी कभी जारी किया हो, मैंने नहीं सुना। बलात्कारी ससुर पति बन जायेगा अपना पति बेटा बन जायेगा-यह सब जग हँसाई के अलावा क्या और कुछ है? अगर तीन वर्षीय शिशु का, उसका दादा ही बलात्कारी ही बन जाये तो क्या उस शिशु को अपने दादा की बीवी बनना होगा? शिशु का बाप उस शिशु का बेटा बन जायेगा। शिशु की माँ को उस शिशु की पुत्रवधू बनना होगा? उन लोगों के फैसले से तो यही ज़ाहिर होता है।

ऐसी सब खबरें सुन कर हाथ-पाँव ठण्डे हो आते हैं। गुड़िया को ले कर भी इसी 'खिलन्दड़ेपन' का मंजर देखा गया। 'इस पति के साथ रहना नहीं चलेगा, उस पति के साथ रहो।' गुड़िया की इच्छा-अनिच्छा की किसी ने भी कद्र नहीं की। खैर, वे लोग कद्र क्यों करने लगे? औरत 'मांस का लोंदा' होने के अलावा और कुछ भी नहीं है, औरतों में 'दिमाग़ नहीं होता, मगज़ नहीं होता, भेजा नहीं होता।' उन लोगों की इच्छा-अनिच्छा क्या! इमराना के मामले में भी यही हुआ। इमराना की इच्छा-अनिच्छा की परवाह करने के लिए कोई कहीं नहीं बैठा है। उसे बलात्कारी ससुर की अबाध काम-वासना, पंचायत की अश्लील नाइन्साफी और मुस्लिम लॉ बोर्ड की अविश्वसनीय बदतमीज़ी का शिकार होना पड़ा। धर्मतन्त्र और पुरुषतन्त्र में चूर हो कर, उसे भी ले कर 'खिलन्दड़ेपन' का खेल जारी रखे हुए हैं। वैसे इसे 'छोकरों का खेल' कहने के बजाय 'मर्दो का खेल' कहना बेहतर है। 'बचपन का खेल' इतना भयंकर नहीं होता, जितना भयंकर 'मर्दो का खेल' होता है। 'बचपन के खेल' का उद्देश्य भी इतिना कुत्सित नहीं होता, जितना 'पुरुष खेल'। मर्द जब खेलता है, औरत को हमेशा ही पैरों तले कुचल डालने की क्षमता को चिरस्थायी करने के लिए खेलता है। आज खेल-खेल में जीत गया. हिप-हिप हरे।'-बचपने का ऐसा खेल शायद बचपन में खेला करता था, पुरुष-उम्र में नहीं खेलता। पुरुष-उम्र में वह 'चिरस्थायी बन्दोबस्त' करता है। चिरकाल तक खेलते रहने का सुयोग पाने का बन्दोबस्त! अपने चिरस्थायी ऐशो-आराम का बन्दोबस्त! धर्म, समाज, राजनीति, अर्थनीति सब पुरुष की मुट्ठी में है। ये सब कुछ बड़ी आसानी से पुरुष मुट्ठी बन्द कर ले, इसके लिए औरत ने त्याग, तितिक्षा कम नहीं की। औरत अगर खुद को निःस्व करके मर्द को शक्तिमान, शौर्यमान न बनाए तो वह औरत कैसी? इस विश्वास पर निर्भर करते हुए, मर्दो की संज्ञा मान कर ही औरत बिरादरी, बेहद खूबसूरत आदर्श औरत हो उठी है। इस निःस्व-रिक्त औरत को बात-बात में मर्द अगर कुहनी मारे, लात मारे, कुचल-पीस कर मारे, दबा कर मारे, उमेठ कर मारे, जला कर मारे, गाड़ कर मारे, डुबो कर मारे, कुट्टी कुट्टी काट कर मारे-कोई क्या कह सकता है? नहीं, किसी के पास कहने को कुछ भी नहीं है।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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